Friday, November 23, 2018

"मन का परिंदा"

शिकार के इंतजार में,
बैठा एक परिंदा था।
हरकत उसकी थी नही,
शायद वो जिंदा था।
हाथ कुछ लगा नही,
धंधा जैसे कुछ मंदा था।
कैद होने माया जाल मे,
कई पंछी मासूम आये।
देर सवेर हमला कर परिंदा,
देखे चमकीली निगाहे गड़ाये।
हूक निकली सबके कंठ से,
मन मे एक ही बात आये।
नगर - डगर भ्रमण से उचित,
बैठे कर लेते भजन।
अब के बरस गुजर जाए,
लेंगे कभी दूसरा जनम।
प्रयास होगा फिर उड़ने का,
होगा फिर से नया सृजन।।"

"अपमान का विष"

"अपमान का विष समुद्र में मथा हुआ, चासनी मे लिप्त, रस से गूंथा हुआ; बोले सवार हो शीर्ष पर एकल, जितना ऊँचा हो प्रतीत पागल; उतना ही गर्त म...