"अपमान का विष समुद्र में मथा हुआ,
चासनी मे लिप्त, रस से गूंथा हुआ;
बोले सवार हो शीर्ष पर एकल,
जितना ऊँचा हो प्रतीत पागल;
उतना ही गर्त मे गिरा हुआ।
वर्तमान से भावी काल की सैर कराये,
भूत बन कर भी कच्ची नींद डराए;
उल्टे पांव भाग जब स्वयं तक आये,
चासनी क्यों अब खुले मुँह करछाए;
रस लगे नीरस, कटु और तीता हुआ,
अपमान का विष है आखिर मथा हुआ।"