Friday, November 23, 2018

"मन का परिंदा"

शिकार के इंतजार में,
बैठा एक परिंदा था।
हरकत उसकी थी नही,
शायद वो जिंदा था।
हाथ कुछ लगा नही,
धंधा जैसे कुछ मंदा था।
कैद होने माया जाल मे,
कई पंछी मासूम आये।
देर सवेर हमला कर परिंदा,
देखे चमकीली निगाहे गड़ाये।
हूक निकली सबके कंठ से,
मन मे एक ही बात आये।
नगर - डगर भ्रमण से उचित,
बैठे कर लेते भजन।
अब के बरस गुजर जाए,
लेंगे कभी दूसरा जनम।
प्रयास होगा फिर उड़ने का,
होगा फिर से नया सृजन।।"

Monday, September 3, 2018

"बेनाम उत्पात"

कौन सा उत्पात उसके सिर चढ़ा है,
जाने किस गली में बेनाम खड़ा है।
चलूँ या रुकूँ समझ न आये,
आधे चाँद की नुकीली चांदनी;
मन उसके धँसी जाए,
चल देता हूँ सोचकर;
जैसे ही कदम बढ़ाये,
रोके काल रात का सन्नाटा;
जिया डर तले थरथराये।
कौन सा उत्पात उसके सिर चढ़ा है,
जाने किस गली में बेनाम खड़ा है।
अमानुष सा लाल चेहरा,
झांके छिपे नजर आये;
सूरज की लालिमा रात में ही,
अपना काम कर जाये;
पग-पग चले वो फिर भी,
रोके उसे हवाएँ सांये-सांये;
निकल पार उज्जवल सवेरा होगा,
सोचे बिना रुके चलता जाये।
कौन सा उत्पात उसके सिर चढ़ा है,
जाने किस गली में बेनाम खड़ा है।
भ्रम जाल का अँधेरा कटा,
सब कुछ स्पष्ट नजर आये;
उठ बैठा बेनाम स्वप्न से,
तेज साँसों से खुद को समझायें।
कौन सा उत्पात उसके सिर चढ़ा था,
जाने किस गली में बेनाम खड़ा था।

Saturday, July 21, 2018

“ख़ामोशी की आवाज”

"खामोश होने जा रही एक और सांसें,
जो आयी थी बहुत से उफान लेकर।
द्वन्द की कसौटी पर खरा न उतर सका,
जाने वाला है वो कई अरमान देकर।
सकारात्मकता का चोला ओढ़ आया था जो खुश करने सबको,
अब जाने वाला है वो कुछ को दुख देकर।
मैत्रीपूर्ण भावनाओं के भंवर में फंसा,
जिसने गर्व को ठुकराया था जिल्लत लेकर।
सफल भाईचारे का जो था प्रतीक बना,
अब वो खोने वाला एक उम्मीद जगाकर।
नकली चाहतो की इस दुनिया में बहुतो ने,
असली को ही मार दिया पानी में डुबोकर।
खामोश होने जा रही एक और सांसें,
जो आयी थी बहुत से उफान लेकर।
दोहरा व्यक्तित्व साधन बना है स्वार्थ की प्यास बुझाने का ,
हश्र उनका बुरा होगा एक दिन चलना सोच समझकर।
हर कोई तलाश रहा सुख सिर्फ पाने के लिए
देने को तैयार नही कोई स्नेह किसी को अपनाकर।
प्रसिद्धि प्राप्ति की लालसा में का क्या कहें,
अच्छे लोग भी मौन बैठे हैं बुत बनकर।
मैली प्रतिस्पर्धा कर कहानी लिखने वाले कहानीकारों,
कहानी स्वयं खत्म करेगी उनकी कहानी उन्हें नकारकर।
कोई अहंकारी कोई स्वार्थी बने हुए हैं कुछ यहाँ,
कुछ कोमल मन ने रोक रखा उसे बाहें फैलाकर।
लेकिन अब पूरा होने वाला है उसका सफर,
जब निकल जायेगा वो ये दुनिया छोड़कर।
खामोश होने जा रही एक और सांसें,
जो आयी थी बहुत से उफान लेकर।
द्वन्द की कसौटी पर खरा न उतर सका,
जाने वाला है वो कई अरमान देकर।”

"मुझे.... अपनी बातों पे अड़ना है।"

“हाँ भाई हाँ मुझे...
अपनी बातों पे अड़ना है,
स्वयं की ये लड़ाई है ;
स्वयं के लिए लड़ना है।
आएँगी जो भी मुसीबतें,
हाथ खोल स्वागत करना है;
उन्ही हाथो से झकझोर कर,
उनपर टूट पड़ना है।
जो कहे तू ये नहीं कर सकता,
उनसे ‘क्यों’ का प्रश्न करना है;
उचित उत्तर न मिलने पर,
एक और प्रश्न जड़ना है।
हाँ भाई हाँ मुझे...
अपनी बातों पे अड़ना है,
स्वयं की ये लड़ाई है ;
स्वयं के लिए लड़ना है।
बहुत छिपा लिया स्वयं को स्वयं में,
मन ही मन अब न कुढ़ना है;
कहना है अब सब से,
सबके साथ मुझे जुड़ना है।
नीले आसमान के ऊपर से,
आजादी के पंख फैलाये उड़ना है;
दोहरे व्यक्तित्व की कहानियां,
आत्मा की दृष्टि से पढ़ना है।
हाँ भाई हाँ मुझे...
अपनी बातों पे अड़ना है,
स्वयं की ये लड़ाई है ;
स्वयं के लिए लड़ना है।”

“ठहर जाइए”

ठहर जाइए थोडा सा,
अक्सर भागते हुए देखा है,
धड़कनो की धकधकाहत में,
दिल संभालते हुए देखा है,
देखा है फिक्रमंद होते हुए,
और मनमानी अंदाज में गुनगुनाते हुए देखा है,
ठहर जाइए थोडा सा,
अक्सर भागते हुए देखा है।
देखा है पत्थर की भाँति अडिग बनते हुए
कभी मिट्टी का कच्चा घड़ा बनते देखा है
चमकीले सरोवरों के पानी में,
पैर छलछालते हुए देखा है,
लीजिये सांस चैन की,
और जी लीजिये पल सुकून के,
ठहर जाइए थोडा सा,
अक्सर भागते हुए देखा है।"



Jhansi Ki Rani (Kathak Dance)


"फिर एक बार"

प्यार का रिसाव शुरू हो गया दिल से,
फिर एक बार...
जुड़ने लगा है मन किसी से,
फिर एक बार...
कुछ नया महसूस हो रहा खुद में,
फिर एक बार...
मुड़कर उसकी ओर हो चला मैं,
फिर एक बार...
कर बैठा दिल निसार किसी पे,
फिर एक बार...
लिख रहा कुछ लाइनें किसी पे,
फिर एक बार...
कर रहा कुछ बातें किसी से,
फिर एक बार...
प्यार का रिसाव शुरू हो गया दिल से,
फिर एक बार…



“वगैरह...वगैरह”

“है ये जो आपके माथे पर शिकन वगैरह,
क्या है किसी की यादों का दिल में बसेरा,
पूछे सवाल आपसे चित चोर समझ के,
जैसे रिश्तेदार करते है पूछताछ वगैरह,
अब अपनेपन का हक़ अदा कर भी दीजिये,
जैसे पुलिस करती है नाको पे चालान वगैरह,
मालूम हुआ बिल्ली तो मुफ़्त में बदनाम थी,
कटोरे में तो कुछ और था सामान वगैरह।”




#मेरी कलम से

स्याही का क्या है, वो बस कागज रंगती है.... कहनी बयां होती हैं तब, जब आंसू संग पलकें झपकती हैं।...(1)
नया वर्ष, नया दिन, नया समय... कुछ नया अहसास सा है फिजाओं में,
ये साल नया है या मैं खुद.....(2)
Aaj usse mulakat hui. Najre ek hui, par baat na hui....(3)

"अपमान का विष"

"अपमान का विष समुद्र में मथा हुआ, चासनी मे लिप्त, रस से गूंथा हुआ; बोले सवार हो शीर्ष पर एकल, जितना ऊँचा हो प्रतीत पागल; उतना ही गर्त म...